तुम मेरी समाधि के बारे में क्या सोचते थे? | Akhand Gyan | Eternal Wisdom

तुम मेरी समाधि के बारे में क्या सोचते थे?

दिव्य ज्योति परिवार के साधकों गुरु-भाइयों-बहनों! गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी की समाधि का 5वां वर्ष चल रहा है। यह समाधि-लीला इतनी अ-लौकिक है कि मन-बुद्धि के दायरों में समा ही नहीं सकती। हममें से जिन्होंने मन-बुद्धि के कैलकुलेटर से इसे मापना चाहा, वे उलझ गए। भीषण प्रश्नों की चपेट में आ गए। संशयों ने घेर कर उनकी साधकता को मार गिराया। ऐसे संशयी साधक धीरे-धीरे गुरु-दरबार से दूर होते गए। समुद्र को छोड़ बैठे; अपनी श्रद्धा की धाराओं को इधर-उधर के छोटे-मोटे पोखरों की और मोड़ ले गए। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जो कहीं गए नहीं। अपनी संशयी प्रश्नों को भीतर दबाए बस चल रहे हैं- मूक द्रष्टा बनकर! इनका मन सूक्ष्म आवाज़ में कहता है- 'महाराज जी अब नहीं आने वाले!'


पर इन सबके बीच, साधकों का एक विशाल वर्ग और भी है। सृजन सेनानियों का वर्ग! उत्साह और  सकारात्मकता से लबालब! जिनके मन में अडिगता और अटलता है- 'महाराज जी ने आना ही आना है। उनके आने से पूर्व हमें स्व-निर्माण करना है।अपनी साधकता और प्रतिभाओं को विकसित कर दिखाना है। उनके मिशन को संभाल कर आगे बढ़ाया है।उनके विराट परिवार को स्नेह-बंधन से जोड़े रखना है। सबके साथ मिलकर चलना है, ऊँचाईयों को छूना है!'


विचारों में इतनी विभिन्नताएं क्यों? हम सब को एक ही गुरुदेव मिले। एक जैसा ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ। समाधि के विषय में एक समान तथ्य हमारे सामने हैं। फिर भी प्रतिक्रियाएँ इतनी अलग-अलग क्यों? यह प्रश्न गूढ़ है। इस रहस्य का उत्तर हमें गीता के श्लोकों में मिलता है।आइए, इस संधि (समाधि) काल का अर्जुन बनकर जगद्गुरु श्री कृष्ण से ही पूछते हैं।


प्रश्न- हे केशव! हम आप समान सद्गुरु-सत्ता को समझ क्यों नहीं पाते।? आखिर कारण क्या है?


भगवान श्री कृष्ण- एक ही कारण है, तुम मुझ दिव्यतम को समझने के लिए अपनी स्थूलतम बुद्धि लगाते हो! देखो-


नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः।

मूढोअयं नाभिजानति लोको मामजमव्ययम।। (गीता-७/२५)

-मैं अपनी योगमाया से सदा आवृत्त रहता हूँ। मेरी सत्ता सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होती है। इसीलिए मूढ़ लोग मुझ अविनाशी को जान नहीं पाते।

'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते'- मुझ 'अव्यक्त' को ये (बुद्धिजीवी) लोग 'व्यक्ति' मान लेते हैं। साधारण मनुष्य की तरह जन्म लेता, मृत होता और क्रियाएँ करता समझते हैं!

प्रश्न- भगवन, ऐसे बुद्धि-केन्द्रित साधकों की गति क्या होती है?

भगवन श्री कृष्ण- ऐसे साधकों के साथ भक्ति-मार्ग की सबसे अप्रिय दुर्घटना घटती है- संशय का जन्म और श्रद्धा का गमन! जैसे ही संशय का कीड़ा पनपता है और श्रद्धा की बेल धराशायी होती है, तो...

...

तो ऐसे विवेकहीन, श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य का क्या होता है? क्या इनका कोई बचाव नहीं है? पूर्णतःजानने के लिए पढ़िए अगस्त'१८ माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।

Need to read such articles? Subscribe Today