किसी ने खूब कहा है, 'सामान्य और सर्वोत्तम शिक्षक में अंतर सिर्फ एक प्रेरणा' का ही है और यह अक्षरशः सत्य भी है। जहाँ एक सामान्य अध्यापक सिर्फ जानकारियों को बाँचता है; वहीं एक सर्वोत्तम अध्यापक छात्र की जिज्ञासा को प्रेरणा रूपी पंख लगाकर ज्ञान के असीम आकाश में उड़ना सिखाता है। आइए, इस लेख के माध्यम से वैदिक आचार्यों के ऐसे ही कई मूलभूत गुणों को आज के परिपेक्ष्य में समझने का प्रयास करते हैं।
अथर्ववेद का आरम्भिक श्लोक समय के शिक्षकों की विशिष्टताओं का बखूबी चित्रण करता है-
पुनरेहि वाचस्पते देवेन मनसा सह।
वसोष्यतेनि रमय मय्येवास्तु मयि श्रुतम्।।
-अथर्ववेद ( 1/1/2)
इसका सरलार्थ हुआ, 'हे वाणी के पति! देव-मन के साथ फिर आइए, वसु के पति! निरंतर रमण कराइए। मुझमें सुना हुआ मुझमें ही रह जाए।'
गौर से पढ़ें, तो इस मंत्र में शिक्षक की चार विशिष्टताओं पर प्रकाश डाला गया है। पहली, एक अध्यापक को वाचस्पति होना चाहिए। दूसरा, शिक्षक को देव-मन से युक्त होना चाहिए। तीसरा, एक अध्यापक को वसुपति भी होना चाहिए। चौथी योग्यता है, अध्यापक का पढा़ने का ढंग रमणीय और रोचक हो। आदर्श आचार्यों के इन्हीं गुणों को पूर्णतः समझने के लिए, आइए इस श्लोक का बारीकी से विश्लेषण करते हैं।
शिक्षक 'वाचस्पति' हों!
वैदिक दृष्टिकोण- वेद ने श्रेष्ठ शिक्षक की पहली योग्यता- 'वाचस्पति' अर्थात् वाणी का अधिपति होना कहा है। एक ऐसा अध्यापक जिसका अपनी बोली पर पूर्णतया अधिकार हो। जिसकी शब्दों पर मजबूत पकड़ हो और संवाद शैली प्रखर हो। मतलब जो वह कहना, समझाना चाहता हो, उसे वह छात्रों के समक्ष बखूबी तौर पर रख सके। क्योंकि अगर आप एक कुशल प्रवक्ता नहीं हैं, तो आप विद्यार्थियों के समक्ष अपने विचारों को सही तरीके से व्यक्त ही नहीं कर पाएँगें। जिस विषय में आप उन्हें शिक्षित करना चाहते हैं, वह उद्देश्य अपूर्ण ही रह जाएगा।
आधुनिक परिप्रेक्ष्य- इसी तथ्य को स्लोवेनिया के 'जुबज़ाना विश्वविद्यालय' के प्रोफेसर 'टमाज पेटक' ने भी अपने शोध में सिद्ध किया। सन् 2012 में प्रकाशित रिसर्च पेपर में वे कहते हैं, 'प्रभावी ढंग से संवाद करने की क्षमता शिक्षक की मूल दक्षताओं में सेएक है। शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक का अच्छा वक्ता होना बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
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