हर बच्चे का पसंदीदा खेल है- साँप-सीढ़ी (Snake & Ladder)! केवल बच्चे ही नहीं, यदि समय मिले तो बड़े भी इस पर अपने हाथ आज़मा लेते हैं। कुछ घरों में अक्सर दादा-दादी मज़े से पोते-पोतियों के साथ इस खेल में भाग लेते हैं। जहाँ यह खेल खेलने में अत्यंत सरल होता है, वहीं इसमें जीतने के लिए भी न तो किसी प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता होती है, न अनुभव की और न ही बुद्धिमता की। सब कुछ केवल पासे फेंकने के हुनर और खिलाड़ी के भाग्य पर निर्भर करता है। यदि पासे सही पड़ें, तो अंतिम बिंदु तक पहुँचने की दौड़ में सबसे पीछे चल रहा खिलाड़ी भी लम्बी सीढ़ी चढ़कर सबसे आगे निकल जाता है। पर वहीं अगर पासों पर अंकित अंकों ने खिलाड़ी की गोटी को साँप के मुख तक पहुँचा दिया, तो खैर नहीं! सर्पदंश के कारण खिलाड़ी लुढ़क कर साँप की पूँछ माने निचले पायदान पर पहुँच जाता है। मतलब कि भाग्य और पासों की मार से व्यक्ति जीतते-जीतते हार जाता है। कई बार तो लक्ष्य के बिल्कुल समीप पहुँचकर वह यात्रा के आरंभिक बिंदु पर आ जाता है। तब उसे पुनः यात्रा आरम्भ करनी पड़ती है।
पर क्या आप जानते हैं, 'स्नेक एंड लेडर' (Snake and Ladder) के नाम से प्रचलित यह खेल मूलतः भारत देश से ही उपजा है? अधिकतर लोग इस सत्य से परिचित नहीं हैं। उनके अनुसार इस खेल का आरंभ विदेशों में हुआ और बाद में यह भारत पहुँचा। ...
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दरअसल शुरूआत में, गाँवों के सहज लोगों को गूढ़ अध्यातम को सरल तरीके से समझाने के लिए इस खेल की रचना की गयी थी। महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव जी 'मोक्षपट्टम' के माध्यम से जनमानस को धर्म, सनातन ज्ञान आदि विषयों से अवगत करवाते थे। क्योंकि कम पढ़े-लिखे लोग ग्रंथों-शास्त्रों की कठिन, अलंकारिक भाषा को समझने में असमर्थ थे। संत ज्ञानदेव जी ने इस खेल में वैदिक सनातन आदर्शों को सम्मिलित किया था। उनके द्वारा बनाए गए इस खेल को 'कैलाश पट्टम' कहा जाता था। इसी प्रकार धीरे-धीरे इस खेल की सुगन्ध सम्पूर्ण भारत में फैल गई। मनोरंजन के साथ आध्यात्मिक संदेश देने वाला यह खेल पूरे भारतवर्ष में प्रचलित हो गया।
... इस खेल को 'ज्ञानबाजी' के नाम से भी संबोधित किया गया।
है न अचम्भे की बात! खेल-खेल में व्यक्ति को सर्वोच्च ज्ञान से अवगत करा देना। कैसे?
जानने के लिए पढ़िए आगामी जनवरी'19 माह की हिंदी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका!
हर बच्चे का पसंदीदा खेल है- साँप-सीढ़ी (Snake & Ladder)! केवल बच्चे ही नहीं, यदि समय मिले तो बड़े भी इस पर अपने हाथ आज़मा लेते हैं। कुछ घरों में अक्सर दादा-दादी मज़े से पोते-पोतियों के साथ इस खेल में भाग लेते हैं। जहाँ यह खेल खेलने में अत्यंत सरल होता है, वहीं इसमें जीतने के लिए भी न तो किसी प्रकार के अभ्यास की आवश्यकता होती है, न अनुभव की और न ही बुद्धिमता की। सब कुछ केवल पासे फेंकने के हुनर और खिलाड़ी के भाग्य पर निर्भर करता है। यदि पासे सही पड़ें, तो अंतिम बिंदु तक पहुँचने की दौड़ में सबसे पीछे चल रहा खिलाड़ी भी लम्बी सीढ़ी चढ़कर सबसे आगे निकल जाता है। पर वहीं अगर पासों पर अंकित अंकों ने खिलाड़ी की गोटी को साँप के मुख तक पहुँचा दिया, तो खैर नहीं! सर्पदंश के कारण खिलाड़ी लुढ़क कर साँप की पूँछ माने निचले पायदान पर पहुँच जाता है। मतलब कि भाग्य और पासों की मार से व्यक्ति जीतते-जीतते हार जाता है। कई बार तो लक्ष्य के बिल्कुल समीप पहुँचकर वह यात्रा के आरंभिक बिंदु पर आ जाता है। तब उसे पुनः यात्रा आरम्भ करनी पड़ती है।
पर क्या आप जानते हैं, 'स्नेक एंड लेडर' (Snake and Ladder) के नाम से प्रचलित यह खेल मूलतः भारत देश से ही उपजा है? अधिकतर लोग इस सत्य से परिचित नहीं हैं। उनके अनुसार इस खेल का आरंभ विदेशों में हुआ और बाद में यह भारत पहुँचा। ...
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दरअसल शुरूआत में, गाँवों के सहज लोगों को गूढ़ अध्यातम को सरल तरीके से समझाने के लिए इस खेल की रचना की गयी थी। महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव जी 'मोक्षपट्टम' के माध्यम से जनमानस को धर्म, सनातन ज्ञान आदि विषयों से अवगत करवाते थे। क्योंकि कम पढ़े-लिखे लोग ग्रंथों-शास्त्रों की कठिन, अलंकारिक भाषा को समझने में असमर्थ थे। संत ज्ञानदेव जी ने इस खेल में वैदिक सनातन आदर्शों को सम्मिलित किया था। उनके द्वारा बनाए गए इस खेल को 'कैलाश पट्टम' कहा जाता था। इसी प्रकार धीरे-धीरे इस खेल की सुगन्ध सम्पूर्ण भारत में फैल गई। मनोरंजन के साथ आध्यात्मिक संदेश देने वाला यह खेल पूरे भारतवर्ष में प्रचलित हो गया।
... इस खेल को 'ज्ञानबाजी' के नाम से भी संबोधित किया गया।
है न अचम्भे की बात! खेल-खेल में व्यक्ति को सर्वोच्च ज्ञान से अवगत करा देना। कैसे?
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