ज़िन्दगी से अक्सर मेरी एक शिकायत रही है। उसने कई पड़ावों और मोड़ों पर मुझे अकेला लाकर खड़ा कर दिया है। देखने को आसपास चलती-फिरती भीड़ थी, चीखते-चिल्लाते जमावड़े थे। पर उन कतारों में एक भी न था, जो मेरा 'अपना' हो। मुझसे टकराकर मेरा कंधा छीलने वाले कई कंधे मेरे साथ-साथ चल रहे थे। पर उनमें एक भी कंधा न था, जिस पर हाथ रखकर मैं सहारा ले सकूँ। अनगिन दिलों की धक्-धक् करती धड़कनें मुझे अपने इर्द-गिर्द सुनती थीं। पर उनमें एक भी दिल न था, जो मुझे समझ सके। जो तिजोरी बनकर मेरी भावनाओं की संपत्ति को सहेज पाए। एक... एक... जी हाँ, एक भी ऐसा हमदर्द न मिला जो मेरे दर्द को पीकर उसे चौथाई या आधा कर दे। जो मेरे मन में उठती-गिरती हर सोच को 'धीर' बनकर सुने और फिर 'वीर' बनकर सही दिशा दिखा दे।
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लोगों से सुना था, किताबें सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। यही सोचकर ऑफिस की लाइब्रेरी की तरफ बढ़ गया। एक पुस्तक हाथ लगी, जिसमें एक अद्भुत व्यक्तित्व के बारे में पढ़ने को मिला। वह थे, ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस के 12 प्रमुख शिष्यों में से एक- 'तारक', जो आगे चलकर स्वामी शिवानंद कहलाए।
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क्या तारक के बारे में पढ़कर मेरे द्वंद्वों की गांठें खुल गईं? क्या मेरे जीवन में परिवर्तन आ पाया? जानने के लिए पढ़िए जनवरी'20 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।