‘वीर एक बार मरता है, परन्तु डरपोक बार-बार मरता है।’ यह कहावत हमने बहुत बार सुनी व पढ़ी होगी।
सच ही है, बाहर से व्यक्ति चाहे कितना ही शक्तिशाली दिखाई दे, परन्तु कहीं न कहीं, किसी भय से ग्रसित जरूर होता है। नेपोलियन जैसा निडर योद्धा तक साधारण सी बिल्लियों से भयभीत हो जाता था। कहते हैं कि नवजात शिशु को भी दो डर होते हैं- एक गिर जाने का व दूसरा शोर का। समय के साथ-साथ ये डर भी बढ़ने लगते हैं और एक समय आता है, जब उसके जीवन का अर्थ मात्र भयभीत होना ही रह जाता है। परीक्षा का डर! पास होने पर नौकरी न मिलने का डर! बेरोजगारी का डर! अपमानित होने का डर! पद छूट जाने का डर! उच्च अधिकारियों द्वारा दुर्व्यवहार का डर! असफल होने का डर! अकेलेपन का डर! आज क्लब,पार्क, होटल, थियेटर आदि का निर्माण बढ़ रहा है, क्योंकि अकेलेपन का डर बढ़ रहा है। इतना ही नहीं, कंपनियों को अन्य कंपनियों से पिछड़ जाने का डर है। मुनाफा कम न हो जाए- इसका डर है। देश को आर्थिक मंदी का डर है। एक राष्ट्र को अन्य राष्ट्र से आक्रमण का डर है। सो हर क्षेत्र, हर स्तर पर, हर व्यक्ति में यह डर पैठ बना चुका है। समस्या तो यही है कि यह डर अब हमें निरन्तर डराने लगा है।
शब्दकोश के अनुसार ‘डर’ का अर्थ होता है- ‘किसी भी पीड़ामयी घटना या बुरी बात की आशंका से उत्पन्न भाव।’ यदि डर को वर्गीकृत करें, तो यह दो प्रकार का है- स्वाभाविक डर व काल्पनिक डर।
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