तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे...
मैं कहता हौं आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखी।
यह है कबीर जी का एक ज्वलंत उद्घोष! आत्मज्ञानी संत की खरी चुनौती! किसके प्रति? उस समाज के प्रति जो हर वस्तु व परिस्थिति को सिर्फ इन्द्रियों, मन एवं बुद्धि के पैमाने पर तोल कर जीवन जीता है। उसके लिए यथार्थ सत्य की क्या कसौटी है? वही जो स्थूल आँखों या स्थूल यंत्रों से दिखता है! जो स्थूल कानों से सुनता है! जो स्थूल त्वचा द्वारा महसूस होता है! जो मन-बुद्धि द्वारा समझा जा सकता है! जन साधारण के लिए बस वही सत्य हैं।
क्या सच में 'सत्य' की इतनी सीमित परिभाषा हो सकती है? इसी सीमितता को चुनौती देता है, अध्यात्म-वेत्ताओं का वर्ग! तत्त्वज्ञानी गुरुओं का शिष्य-वर्ग! भारत के वे ऋषि-मनीषी, योगी व साधक, जिन्हें इन्द्रियातीत अनुभूतियाँ हुई। (स्थूल) आँखों के बिना दिखीं। (स्थूल) कानों के बिना सुनीं! जो कुछ देखा व सुना अथवा अनुभव हुआ, वह भावी समय में एक 'सत्य घटना के रूप में सामने भी आया। साधक वर्ग के लिए ये अंतरानुभूतियाँ अलौकिक चिट्ठियाँ सिद्ध हुई, जो दैवी संदेश के रूप में उन तक पहुँची और उनका मार्गदर्शन कर संबल देती रहीं। ....
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ऐसी ही कुछ इन्द्रियातीत अंतरानुभूतियों को पूर्णतः जानने के लिए पढ़िए जनवरी २०२१ माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका का यह अद्भुत लेख!