
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
(गीता 18/78)
श्रीमद्भगवद्गीता का यह अंतिम श्लोक साधकों व शिष्य समाज को सफल आध्यात्मिक यात्रा का सूत्र दे रहा है। आइए, इसमें निहित गूढ़ व तात्त्विक संदेशों से परिचित होकर उन्हें धारण करने का प्रयास करते हैं। इस श्लोक का मुख्य भाव है- विजय वहीं है- 'यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः' जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धर अर्जुन है।
...जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं!
यहाँ श्रीकृष्ण से पूर्व 'योगेश्वर' शब्द का प्रयोग किया गया। योगेश्वर अर्थात् निराकार सत्ता का साकार स्वरूप! जब वह परमशक्ति एक महान लक्ष्य को लेकर, मानवता की पथप्रदर्शक बनकर सद्गुरु या जगद्गुरु रूप में अवतरित होती है, तो वह 'योगेश्वर' कहलाती है।...
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…जहाँ धनुर्धर अर्जुन है!
...श्लोक में जहाँ भगवान कृष्ण को 'योगेश्वर श्रीकृष्ण' कहकर सम्बोधित किया गया; वहीं अर्जुन के लिए कहा गया- 'पार्थो धनुर्धरः' अर्थात् केवल 'अर्जुन' नहीं, 'धनुर्धर अर्जुन'! ...
परन्तु वास्तव में, यह अर्जुन है कौन?...
...'धनुर्धर' शब्द किसका परिचायक है?... ये सब पूर्णत: जानने के लिए पढ़िए मार्च'21 माह की हिन्दी अखण्ड ज्ञान मासिक पत्रिका।