
शास्त्र कहते हैं, एक शिष्य निरन्तर चलता है। इस निरन्तर' शब्द का अर्थ समझते हैं आप? ऐसा समर्पण, ऐसा चिंतन, ऐसी गति, ऐसी मति ऐसा अरमान, ऐसा ईमान- जिसमें न कोई अटकन हो, न कोई अड़चन। न कोई रुकावट हो, न ही थकावट! एक ऐसा सिलसिला, जिसका आरम्भ तो है, पर अंत नहीं।
वैसे भी, गुरु-भक्तों की डगर और उनका सफर तो हमेशा से संसार से जुदा ही रहा है... चाल में भी और अंदाज में भी! संसार में हासिल की गई किसी भी वस्तु पर निर्माण तिथि के साथ समाप्ति-तिथि भी छपी होती है। सांसारिक नौकरी में भी यदि प्रवेश तिथि है, तो साथ में रिटायरमेंट (सेवा-निवृत्ति) तिथि भी है। पर ऐसा संसार में होता है, गुरु-दरबार में नहीं। यहाँ से प्राप्त किए गए शिष्यत्व की कोई समाप्ति या रिटायरमेंट तिथि नहीं होती। जीवन के समाप्त हो जाने के बाद भी नहीं! गुरु-सेवा के क्षेत्र में एक बार नियुक्ति हो जाने के पश्चात्, फिर कोई निवृत्ति नहीं होती। इस दायित्व को तो हर जन्म में निभाना होता है।
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